Sunday, March 12, 2023

तेरे बिन शायद..

कई टुकड़ों को जोड़कर

एक तस्वीर बनाऊंगा शायद

किसी- किसी की मुस्कुराहट में

तेरी मासूम हंसी पाऊंगा शायद


किसी - किसी आहट पर रुक जाऊंगा

कोई आवाज सुन के चौंक जाऊंगा 

कभी - कभी आखें मैं गीली कर लूंगा शायद

किसी कोने में बैठकर जी भर के रो लूंगा शायद


तुमको सामने बैठा समझ

खुद से ही कुछ बातें करूंगा

कभी हंसूंगा तो कभी लडूंगा

मैं तुम्हे भूलने की कोशिश में

हर रोज याद करूंगा शायद

हर बार जीने का वादा कर मरूंगा शायद


कुछ रास्तों से गुजरने से डरूंगा शायद

फिर खुद - ब- खुद उन राहों पर बढूंगा शायद

फिर सड़क के किनारे बैठ जाऊंगा 

इस इंतजार में कि तुम आओगे

तुम नहीं आओगे शायद

एक बार फिर मुझे उदास कर जाओगे शायद


कभी जो खुद को अकेला पाऊंगा

तो कुछ तेरे नगमें गुनगुनाऊंगा

फिर कभी चुप होकर

दुनिया के शोर में  गुम हो जाऊंगा 


तेरे बिना सांस लेता रहूंगा शायद

जिंदा हूं ये दुनिया को धोखा 

देता रहूंगा शायद

मैं चाहूंगा कि रात खत्म न हो

फिर दिन के उजाले में

कुछ नाकाम कोशिश करूंगा शायद


एक किताब में तेरी तस्वीर छुपा कर रखूंगा

तेरी कान की कोई बाली 

तुझसे जुड़ी कोई निशानी

कुछ कागज के टुकड़े

फटे हुए , कुछ बिखरे

सब तेरी अमानत समझ के सहेजूंगा शायद


मैं चुपचाप रहूंगा पर

अपनी खामोशी से बहुत कुछ कहूंगा शायद

पुकारूंगा अपनी नजरों से तुमको

जब दूर- दूर तक न पाऊंगा शायद

तेरे बिना जिंदगी एक बोझ होगी

ये बोझ ढोते - ढोते गुजर जाऊंगा शायद

पर लबों पे तेरा नाम उस पल भी दुहराऊंगा शायद

तुझे याद करके जियूंगा और

याद करते मर जाऊंगा शायद


जब कभी बारिश की कुछ बूंदे

मेरे तन को भिगोएंगी

मन को कुछ गीले एहसासों में डुबोएंगी 

मैं अकेला बादलों के साथ बरसूंगा शायद

तेरे साथ भीग जाने को फिर

एक बार तरसूंगा शायद


अपनी खाली हथेली देख

तेरे हाथों के निशान ढूंढूंगा मैं

पलकें बंद कर तुझे 

महसूस करूंगा मैं

तेरी दी हुई चंद खुशियों के दम पर

कभी - कभी मैं भी खुश हो लूंगा शायद

कुछ इस तरह से मेरी जिंदगी

तुंझे जिंदगी भर याद करूंगा शायद

Friday, January 3, 2020

मैं बोलूंगा

मैं बोलूंगा,
मैं लिखूंगा,
और खुलकर
और निडर
तुम डरना मत
क्योंकि मैं तुम्हारे
बोलने के
लिखने के
हक के साथ हूं
तबतक
जबतक
इसमें तुम्हारा भी
बराबरी का यकीन है
ये सबकी आज़ादी है
ये सबकी ज़मीन है

गुंजाइश

अपने सीने में आग भी जलाए रखना
चिंगारियों से घर को भी बचाए रखना
 बहस के बाद खिड़कियां खुली  रखना
दोस्ती की एक गुंजाइश बनाए रखना


Saturday, December 21, 2019

इस देश का कमाल है

नाज़ियों की भीड़ है और
शक्ल कुछ बदल गई
मुख्तसर सी बात पे
डर से देखो हिल गई

बुतशिकन जमा हुए
और आग चारो ओर है
हम सही हैं सब गलत
हर तरफ ये शोर है

झूठ के पहाड़ पर
जला रहे मशाल हैं
बस्तियां भी चुप सी हैं
इस देश का कमाल है

झूठा आंदोलन

 उनके पत्थरों को फूल कह दूं तो चलेगा
हर कत्ल को उनकी भूल कह दूं तो चलेगा

एक लकीर है बारीक
वो मिटा देना चाहते हैं
तलवारों के ज़ोर पे
खुद जैसा बना देना चाहते हैं

गुमराह रहे हैं उनको
गुमराह करेगा कौन
खून की जिनको प्यास रही
तो जाम भरेगा कौन

 जब तर्क से नहीं होगा
 तो गाली देंगे
गाली देकर थकेंगे
 तो मारेंगे
मार कर भी हारेंगे
 तो आवाज़ दबाएंगे
 हर बार ऐसे ही आते है,
हर बार ऐसे ही आयेंगे
उनको डर आपसे नहीं
आपके सनातन तत्व से है
जो सर्वदा जयते रहा
उसी भारत के सत्य से है

 घर फूंक मेरा हाथों से
गुलाब लेकर आए हैं
शहर जला के देखो मेरा
फूल चढ़ाने आए हैं

 जितनी आग लगाओगे
खुद जलते ही जाओगे
जब आग तुम्हारी ठंडी होगी
बस राख तुम्हारा हासिल होगा
पहले भी जलाया है
कल भी जलाएंगे
आग है जिनकी फितरत
वो चिंगारी लेकर आएंगे
 गांधी की फोटो लाए हैं
वो देश जलाने आए हैं

तेरी मासूमियत से जहां रूबरू ना था
ये और बात है कि तूने पर्दा उठा दिया

गांधी की फोटो लाए हैं
ये खून बहाने आए हैं

ख़तरनाक होती है
एक डरी हुई भीड़

और उससे भी ख़तरनाक होती है
डरी हुई भीड़ से डरी हुई
एक बड़ी भीड़

और सबसे ख़तरनाक होती है
अपने उस डर मिटा देने वाली भीड़

क्यूंकि उस डर की कीमत
अदा करती है
एक तीसरी गुमनाम भीड़

Tuesday, December 3, 2019

सूरज हूं

मैं कहीं नहीं
पहुँचने के लिए
चलता हूँ
सूरज हूँ
हर रोज़ ढलता हूँ
हर रोज़ निकलता हूँ

सफ़र में
रौशनी भी है
बादल भी हैं
इनसे बारहा मिलता हूँ
सूरज हूँ
हर रोज़ जलता हूँ
पर नहीं बदलता हूँ

मुख़्तसर सा नहीं
मेरा सफरनामा
फिर भी नया कहां
कोई कारनामा
एक ही कहानी है
सदियों से मैं कहता हूँ
सूरज हूँ
हर रोज़ ढलता हूँ
हर रोज़ निकलता हूँ
              - रवि मिश्रा

बुर्का

सिर से पांव तक ढकी
एक पाक़ ख़वातीन
काले दस्ताने और
काले आस्तीन
अगली सीट पर ही
गर्म पानी, दूध, चाय
इत्मिनान से चीनी मिलाई
न हाथ दिखे, न ही नाखून
और इस तरह से
उसने एक चाय बनाई
लेकिन अब इस प्याली
और उसके हलक़ के बीच
सदियों की बुनी
एक झीनी मगर
सख्त दीवार थी
घरों की सरहदों के
भीतर बाहर इसी
ज़नाना लिबास पर
एक मर्दाना तक़रार थी
एक झटके में प्याली
उसके होठों तक आ सकती थी
मगर ये काफिराना लुत्फ
वो कहाँ उठा सकती थी
बीच में कुछ एक किताबें
मेहंदी रंगी दाढ़ी के फतवे
हर मर्द की नापाक नज़र
उसपर अनदेखे
जहन्नुम का डर
अपनों का पहरा
जिसमें छुपाना है
अपना ही चेहरा
एक शर्म का पर्दा जिसे
आंखों का बताया गया
इस खातून को पहनाया गया
और मर्दों से हटाया गया
क्योकिं सदियों से
ईमान से भटकने डर है
एक चाय की प्याली
और ये दीवार
इसका ही असर है
तभी उस पाक़ ख़वातीन ने
वो पर्दा हल्के से हटाया
काले लिबास के भीतर
प्याला नज़ाक़त से छुपाया
सुर्र सुर्र की आवाज़ ने
सबकुछ मुझे समझाया
हर रोज़ की तरह फिर उसने
ईमान-ए-कौम बचाया

- रवि मिश्रा